Wednesday 21 January 2015

जीने की कला सिखाते हैं बाबा..

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Thursday 8 January 2015

शुभ कार्य से पहले बाबा का स्मरण करें...


शुरू करो कुछ भी प्रथम, लो साई का नाम ।
सभी मनोरथ पूरी होतीं, बनते बिगड़े काम ।

हर अच्छे काम की शुरुआत मंगलाचरण से होती है। मंगलाचरण यानी मंगल आचरण। और स्पष्ट करें, तो पवित्र आचरण। कहते हैं कि किसी भी शुभ कार्य से पहले यदि देवों को बुला लो, अपने पितृ को याद कर लो तो सारे काम सफल हो जाते हैं। बाबा का स्मरण भी हमारी सफलताओं का सूचक बन जाता है। क्योंकि साई स्वयं भगवान हैं, देव हैं, हमारे पितृ हैं, सखा हैं और हमारे जीवनरूपी रथ के कृष्ण की भांति सारथी हैं।

गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा में लिखा है...



श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि। बरनऊ रघुबर बिमल जसु जो दायक फल चारि।
अर्थात-हमारे पाप, हमारे जो बुरे कर्म हमें भगवान के पास जाने से रोकते हैं, वो सारे मंगलाचरण से दूर हो जाते हैं। मंगलाचरण किसी भी कार्य को प्रारंभ करने की शुरुआती प्रक्रिया है। वह हमें अपने कार्य के प्रति दृढ़संकल्पित कर देती है। उदाहरण क्रिकेट से ही लीजिए। मैच के पहले हर खिलाड़ी अपने-अपने धर्म और रीति-रिवाजों के अनुसार ऊपरवाले से विनती करता है, ताकि वो जब मैदान में उतरे, तो उसके मन में कोई विकार रहे। वो खेल को खेलभावना के साथ खेले। ऐसा हर खिलाड़ी करता है, चाहे वो ढेरों कीर्तिमान गढऩे वाले सचिन तेंदुलकर ही क्यों हों। वे भी लगातार नेट पर प्रैक्टिस करते थे। मंगलाचरण शुभ कार्य से पहले नेट प्रैक्टिस ही तो है।

जब हमारा आचरण मंगलमयी होगा, तो निश्चय ही जीवन में भी मंगल ही मंगल नजर आएगा। यह जरूरी नहीं कि, मंगलाचरण के लिए किसी विशेष स्थल पर धूनी जमाई जाए, मंदिर का कोई कोना तलाशा जाए, जंगलों में सुनसान जगह ढूंढी जाए या अपने इर्द-गिर्द जमा लोगों को दुत्कार कर भगाया जाए, ताकि एकांतवास मिल सके। मंगलाचरण तो कहीं भी, किसी भी जगह, किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। जैसे हमें कोई भी कार्य की शुरुआत से पहले श्रीणेशाय नम: करते हैं। उद्देश्य श्री गणेश हमारे सारे प्रयोजन ठीक करें। ठीक वैसे ही अगर हम बाबा का स्मरण मात्र भी कर लेते हैं, तो वे रोशनी, हवा और पानी के जरिये हमारे मन-तन को नि:पाप कर देंगे।

उदाहरण, छोटा-सा बच्चा; जब कुछ भी करता है, तो अपनी मां या पिता से पूछता जाता है। मां मैं यह कर सकता हूं, पापा क्या मैं इस चीज को हाथ लगा सकता हूं, खा सकता हूं, वहां जा सकता हूं...आदि; आदि। एक बच्चे का मन एकदम निर्मल होता है। उसे नहीं पता होता कि, वो जो करने जा रहा है, जो सोच रहा है, वो ठीक है या नहीं। उससे कोई गलती हो जाए, इसलिए वो अपनी मां या पिता से सही रास्ता पूछता है, मार्गदर्शन मांगता है। एक बच्चे के लिए यह मंगलाचरण है। वो कोई भी कार्य करने से पहले मां-पिता की अनुमति लेता है, ताकि जाने-अनजाने उससे कोई भूल हो जाए। हम बड़ों को भी ऐसा ही आचरण करना चाहिए; लेकिन ऐसा अकसर होता नहीं। अपने अहंकार कि; हम तो परमज्ञानी हैं, हमें तो सब आता है, हम परफेक्ट हैं आदि; आदि के चलते हम बगैर किसी के मार्गदर्शन/सलाह के काम करना शुरू कर देते हैं। अगर हम एक बच्चे की भांति व्यवहार करें; कुछी करने से पहले अपने गुरु, मात-पिता से सलाह-मश्वरा लें; मार्गदर्शन मांगे, तो गलतियों की गुंजाइश के बराबर रह जाती है। बाबा का सान्निध्य; स्मरण भी तो हमें गलत राह पर जाने से रोकता है; सचेत करता है। लेकिन मंगलाचरण के लिए मन का निर्मल होना भी आवश्यक है, जैसे कि, एक बच्चे का होता है।

तब की एक कहानी....
बाबा का एक भक्त था बाला गणपत दर्जी। एक बार वो बहुत बीमार पड़ा। नीम-हकीम; डाक्टर सबको दिखाया, लेकिन बुखार में रत्तीभर भी अंतर नहीं आया। वो दौड़ा-दौड़ा शिर्डी पहुंचा और बाबा के चरणों में गिर पड़ा। बाबा ने आदेश दिया; जाओ समीप के लक्ष्मी मंदिर में बैठे एक काले कुत्ते को थोड़ा सा दही और चावल खिलाओ। स्वाभाविक-सी बात है कि; बाबा का यह आदेश गणपत दर्जी को विचित्र जान पड़ा। हालांकि उसने बाबा के आदेश का पालन किया। उसने देखा कि, कुत्ते के दही-चावल खाते ही उसका बुखार जाता रहा।

यह बाबा का एक चमत्कार था। दरअसल, बाबा सर्वव्यापी हैं। उन्हें पता है कि; किस प्राणी को किस चीज की जरूरत है। अकसर हम अपनी पीड़ा के आगे दूसरों का दर्द कमतर आंकते हैं। जबकि होना उलटा चाहिए। अगर हम यह सोचेंगे कि; फलां व्यक्ति से ज्यादा बीमार तो मैं हूं, उससे ज्यादा इलाज की आवश्यकता तो मुझे है, तो नि:संदेह आपकी मामूली पीड़ा और बढ़ जाएगी। कारण; आपने सच्चे मन से यही तो माना कि; आपका दर्द सामने वाले के दर्द से अधिक है। अगर आपने सोचा होता कि; मेरा तकलीफ सामने वाले के कष्टों से तो बहुत कम है, तो आपकी यह दृढ़ सोच आपकी पीड़ा को आधा कर देती। बाबा ने उस कुत्ते की पीड़ा महसूस की। गणपत दर्जी को उसे दही-चावल खिलाने का आदेश दिया। गणपत जब कुत्ते को दही-चावल खिला रहा था, तब कुछ देर के लिए वो अपनी तकलीफ भूल गया। जैसे ही मन से पीड़ा की अनुभूति विलुप्त हुई, वो भला-चंगा हो गया।

एक अनुभूति ही तो; सुख-दु:; बैचेनी-परमानंद की जड़ है। बाबा अपने भक्तों में अनुभूति का ही संचार करते हैं। अच्छी अनुभूति करेंगे, तो सुखी रहेंगे; और अगर मलिन अनुभूति होगी, तो दु:-तकलीफ होना लाजिमी है।