Sunday 1 March 2015

अहंकार दु:ख का कारण..


जीवन में दु:ख देते हैं लोभ, ईष्र्या, अहंकार।
साई शरण में जाने से ये मिटते सभी विकार।


गोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर; जिन्हें बाबा ने हेमाडपंत की उपाधि देती थी। हेमाडपंत ने बाबा की अनुज्ञा और आशीर्वाद से मराठी भाषा में श्री साई सतचरित की रचना की। बाद में श्री शिवराम ठाकुर ने इसका हिंदी अनुवाद किया। हेमाडपंत को बाबा की विशेष कृपादृष्टि प्राप्त थी। बाबा दुनिया के लिए एक मार्गदर्शक, मित्र, शुभचिंतक बनें, इसके लिए यह जरूरी था कि, उनकी कहानियां, जीवनयात्रा, धर्म-कर्म लोगों तक पहुंचे। इसके लिए सबसे बेहतर माध्यम था पुस्तकें। बाबा ने इसके लिए चुना दाभोलकर को। 
Shri Hemadpant 

जैसे वेदव्यासजी ने श्रीमद्भागवद और वाल्मिकी ने रामायण की रचना की थी, उन्हीं के सदृश्य पवित्र ग्रंथ साई सद्चरित रचा दाभोलकर ने। सुखद संयोग देखिए दाभोलकर के नाम में गोविंद भी है और रघुनाथ भी। याने के कृष्ण और राम दोनों ने मिलकर गोविंद रघुनाथजी के जरिये बाबा का सद्चरित्र रचा। 

यह शाश्वत सत्य है कि, ज्ञान अक्षरों और भाषाओं से नहीं आता। बुद्धिमता तो; व्यक्ति की सोच/जतन/कर्म और लगातार कुछ सीखने की ललक होती है। क्या एक कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति कोई ग्रंथ रच सकता है? हो सकता है कि 90 प्रतिशत लोगों का उत्तर न में मिले, लेकिन सच नहीं है। दरअसल, पढ़ाई-लिखाई का आशय यह नहीं कि, हम सर्वज्ञाता हो गए। दरअसल, उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद व्यक्ति में यह अहंकार आ जाता है कि, वो ज्ञानी है और उससे कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति उसके मुकाबिल अज्ञानी। जबकि प्रयोगधर्मी, कुछ सीखने की ललक रखने वाला व्यक्ति यानी जीवन को सही तरह से समझना वाला व्यक्ति किताबी ज्ञान वाले व्यक्ति से कहीं अधिक ज्ञानवान होता है। दाभोलकर के मामले में भी कुछ ऐसा ही था।

दाभोलकर पांचवीं क्लास तक पढ़े थे। हालांकि वे मेहनती खूब थे, लेकिन पारिवारिक परिस्थितियों के कारण आगे पढ़ नहीं पाए। शुुरुआत में दाभोलकर ने तलाटी की नौकरी की। पर देखिए मेहनत का फल, धीरे-धीरे वे बढ़ते-बढ़ते स्पेशल जज की पोजिशन तक जा पहुंचे। कभी-कभार मेहनत से प्राप्त उपलब्धि भी अहंकार पैदा कर देती है। यह दंभ आदमी के भीतर बुराइयां पैदा करने लगता है। उसे लगता है कि, इस नश्वर दुनिया में उससे बड़ा कोई दूसरा नहीं है। मैं ही मैं हूं, बाकी सब तुच्छ हैं। यही मैं आदमी को पतन की ओर ले जाता है, अगर वो समय रहते इस मैं पर विजय नहीं पा पाता तो। दाभोलकर को अपने इस श्रम का बड़ा दंभ था कि, मैं इतना अल्पशिक्षित; छोटे घर से फिर भी इस पोजीशन तक पहुंच गया हूं। 

नाना साहब चांदोलकर और काका साहब दीक्षित ये दोनों बाबा के परम भक्त और दाभोलकर जी के परम मित्र थे। वे दाभोलकर से कई बार कह चुके थे कि, दाभोलकर भाई शिर्डी चलो। वहां साई बाबा हैं। बहुत पहुंचे हुए। हम तो उनके चमत्कारों का लाभ उठा चुके हैं, तुम भी चलो। लेकिन दाभोलकरजी किन्हीं कारणों से जा नहीं पाए। मुंबई के पास स्थित लोनावला में दाभोलकरजी के एक मित्र रहते थे। उनका बच्चा बेहद बीमार था। नीम-हकीम, डाक्टर, वैद्य किसी की दवाई से कोई फायदा नहीं हो रहा था। उस मित्र ने अपने गुरु को बुलाया और कहा, अब आप ही एक आस बचे हो मेरे बच्चे के जीवन के लिए। 
Kakasaheb Dixit


दाभोलकरजी के मित्र ने अपने गुरु को बच्चे के सिरहाने बैठाया, लेकिन विधाता ने जो लिखा था वो हो कर रहा। डाक्टरों की तमाम कोशिशों के बावजूद बच्चा बच नहीं पाया। इस घटना के बाद दाभोलकरजी के मन में यह धारणा घर कर गई कि, जिस गुरु के होने का कोई फायदा न हो, तो फिर गुरु क्यों बनाया जाए? 

एक बार नाना साहब दाभोलकरजी से मिलने गए और शिर्डी न जाने के लिए उन्हें खूब डांट पिलाई। कहने लगे, तुम समझते क्या हो अपने आप का?े शिर्डी क्यों नहीं जा रहे हो?  लाख समझाइश और खरी-खोटी सुनने के बाद दाभोलकरजी अपने दोस्त नाना साहब का मन और मान रखने के लिए शिर्डी जाने को राजी हो गए। रेल का सफर था, लेकिन गलती से वे शिर्डी जाने वाली गाड़ी के बजाय किसी अन्य में बैठ गए। अचानक कहीं से एक संत प्रकट हुए। वे दाभोलकरजी के पास आए और कहा, यार तुम तो गलत गाड़ी में बैठ गए हो? खैर इस गाड़ी से तुम मनमाड़ उतर जाना, वहां से साधन लेकर शिर्डी पहुंच जाओगे। 

अब देखिए, बाबा दिशाभ्रमित लोगों को कैसे सही राह दिखाते हैं। उनके लिए कहीं न कहीं से मार्गदर्शक भेज देते हैं। अगर दाभोलकरजी गलत गाड़ी से गलत स्टेशन पर पहुंच गए होते, तो शायद पक्का जीवन में दूसरी बार कभी शिर्डी जाने को तैयार नहीं होते। क्योंकि वे तो शिर्डी जाना ही नहीं चाहते थे। अपने मित्र नाना साहब का मन और मान रखने बाबा के पास जाने को तैयार हुए थे। दाभोलकरजी के मन की बात बाबा भली-भांति जानते-समझते थे। इसलिए बाबा ने संत के रूप में एक मार्गदर्शक भेजा कि, जा दाभोलकर को सही दिशा की गाड़ी में बैठा कर आ। संभव है उस संत के भेष में बाबा खुद ही स्टेशन गए हों। वैसे अगर दाभोलकरजी सही वक्त पे शिर्डी जाने से चूक जाते, तो निश्चय ही आज यहां उनका जिक्र नहीं हो रहा होता।

सही वक्त पर किया गया सही काम ही व्यक्ति को पहचान दिलाता है, सफलता दिलाता है। इसका एक सरल उदाहरण है। अगर आप किसी भी परीक्षा में सही समय पर नहीं पहुंचे, तो क्या होगा? जितनी देरी से पहुंचेंगे; उतनी घबराहट में सवालों के जवाब देंगे, कुछ छूटेंगे; तो कुछ गलत होंगे।...और अगर जल्दबाजी में सभी सवालों के जवाब दे भी दिए, तो जैसा आप याद करके गए थे, वैसा उत्तर नहीं लिख पाएंगे। लिखने की शैली अवश्य बिगड़ेगी। इसलिए बाबा ने दाभोलकर को सही रास्ता दिखाने के लिए एक संत स्टेशन भेजा या स्वयं पहुंचे।

खैर, दाभोलकरजी शिर्डी पहुंचे। जब वे तैयार होकर बाबा से मिलने निकले, तो उन्हें कुछ लोग मिले। उन्होंने कहा कि, जाओ बाबा अभी लैंडी बाग से वापस आ रहे हैं। मस्जिद के कोने में जाकर उनके दर्शन तो कर लो। दाभोलकरजी अनमने चित्त से वहां गए। लेकिन जब बाबा को देखा तो देखते ही रह गए और उनके चरणों में गिर पड़े। दाभोलकरजी का गला भर आया और रोम-रोम रोमांचित हो गया। 

यह ठीक वैसी ही स्थिति थी, जब हमसे कोई कहता है कि कश्मीर तो स्वर्ग-सरीखा है। जिन्होंने कश्मीर नहीं देखा, वे तस्वीरों/फिल्मों या टीवी में देखे गए कश्मीर को याद करके थोड़ा-बहुत रोमांचित हो जाते हैं और जैसे ही चर्चा को विराम लगता है, उनका ह्रदय रोमांच से सामान्य स्थिति में आ जाता है। लेकिन कश्मीर गए हैं, वे चर्चाओं में भी कश्मीर की खूबसूरती का वास्तविकता में आनंद महसूस करने लगते हैं। दाभोलकरजी के साथ भी ऐसा ही हो रहा था। वे बाबा के सामीप्य पहुंचे, तो रोम-रोम रोमांचित हो उठा और जैसे ही दूर हुए, तो अहंकार फिर से अंदर घर कर गया। दरअसल, किसी चीज का असली आनंद तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि आप अपना अहंकार नहीं छोड़ देते। जीवन का असली आनंद तभी आता है, जब आप अहंकार, ईष्र्या, मोह-माया को छोड़कर उसके रंग में रंग जाते हैं।



दाभोलकर के साथ भी यही हो रहा था। बाबा के दर्शन से वापस लौटे, तो फिर वही हाल कि, मैं ज्ञानी; इतना बड़ा जज, एक बाबा के आगे कैसे झुक गया? लेकिन बाबा तो उनकी परीक्षा ले रहे थे। शायद बाबा अपने चमत्कारों के बूते दाभोलकरजी का मन नहीं बदलना चाहते थे। वे तो चाहते थे कि, दाभोलकर खुद के प्रयासों से अपने मन को बदलें। किसी के दबाव, प्रलोभन या चमत्कारों से वशीभूत होकर अपनी सोच न बदलें। उनमें जो परिवर्तन आए, वो खुद के बूते आए। यह सच भी है। किसी को सम्मोहित करके आप कब तक उसे अपने प्यार में बांधे रख सकते हैं? जब-जब वो सम्मोहन से बाहर निकलेगा, तब-तब वो आपसे अजनबियों-सा बर्ताव करेगा। क्योंकि उसने मन से आपको कहीं चाहा ही नहीं। ...और अगर एक बार उसने मन के अंदर आपकी मूरत बसा ली, तो फिर उसके ऊपर कोई दूसरा सम्मोहन काम नहीं करेगा।

एक बार दाभोलकरजी की अपने मित्र बाला साहब फाटे से गुरु की महत्ता और उपयोगिता पर लंबी बहस छिड़ गई। बाला साहब उनसे कहते थे, तुम अपने सारे कर्म अपने गुरु के चरणों में न्यौछावर कर दो और जो वो कहें; वो करो। दाभोलकर जी बोले, गुुरु की जरूरत क्या है? वे अपने मित्र नाना साहब के बेटे की मौत का उदाहरण देते हुए बोले, जब गुरु के चरणों में जाकर भी दु:खी होना है, तो फिर उनकी आवश्यकता क्या है?

बाला साहब ने उनसे बहुत अच्छे शब्दों में कहा, दाभोलकरजी यह आप नहीं; आपका अहंकार बोल रहा है। बाला साहब मुंह से ऐसे शब्दों की दाभोलकरजी ने कल्पना भी नहीं की थी। यह सुनकर वे दु:खी हो गए। उन्हें शायद जीवन में पहली बार किसी ने आइना दिखाया था कि, दाभोलकर तुम अहंकारी हो और तुम्हारा अहंकारी होना ही तुम्हारे दु:ख का कारण है। जहां अहंकार होता है वहां किसी और के लिए जगह नहीं होती। उसमें कोई दूसरा समा नहीं सकता। हमारे भीतर जो मैं होता है, वो इतनी सारी जगह घेर लेता है कि दूसरे किसी को शायद सांस लेने की जगह भी नहीं मिले।
 
अब देखिए, जब इन सब घटनाओं के वर्षों बाद स्वयं दाभोलकरजी ने बाबा का सद्चरित्र लिखा है, तो उसमें यह भाव-उद्गार व्यक्त किया कि, मैं अहंकार के कारण ग्लानि महसूस कर रहा था। 


खैर, अब फिर से लौटते हैं पुराने घटनाक्रम पर। दर्शन का टाइम हो रहा था बाला साहेब ने दाभोलकरजी से कहा, चलो बाबा के पास चलते हैं। बाबा सब देख रहे थे, सब जानते थे। दोनों मस्जिद पहुंचे और बाबा को प्रणाम किया। यह 1910 के आस-पास की कहानी है। बाबा ने कहा, बाला बाड़े में क्या बहस चल रही थी? क्या बातचीत कर रहे थे तुम दोनों? और इन श्रीमान हेमाडपंत ने क्या कहा?

उस समय तक बाबा को दाभोलकरजी का नाम नहीं पता था। लेकिन बाबा ने उन्हें हेमाडपंत से संबोधित किया, यह दाभोलकर के लिए अचरज की बात थी। भले ही दाभोलकरजी ज्यादा शिक्षित नहीं थे, लेकिन सामान्य ज्ञान उनका बड़ा जबर्दस्त था। वे भांप गए कि बाबा ने उन्हें लज्जित करने के लिए हेमाडपंत से संबोधित किया है, क्योंकि वे ज्ञान का बखान बहुत करते हैं। 

दरअसल हेमाडपंत जो है, वो अपभ्रंश है हिमाद्री पंत का। हिमाद्री पंत निजाम स्टेट में यादव वंश के राजा रामदेव व महादेव के मंत्री थे। वे बेहद चतुर और विद्वान थे। उन्होंने राज प्रशस्ति और चतुरवर्ग चिंतामणी नाम की दो किताबे भी लिखी थीं। ये माना जााता है कि एकाउंट में जो सिंगल इंट्री सिस्टम है याने की बही खाते रखने की प्रथा, वह हिमाद्री पंतजी की ही देन है। इसके अलावा मराठी की मोढ़ी लिपी का आविष्कार भी हिमाद्री पंत ने किया था। दाभोलकरजी को यह बात चुभने लगी कि, हेमाडपंत तो ज्ञान थे, जबकि वे पांचवीं पास; शायद इसीलिए बाबा ने उनका उपहास उड़ाया है।

दाभोलकर जी सोच में पड़ गए कि यह आदमी यानी बाबा जब मेरा नाम नहीं जानता, तो इसने मुझे हिमाद्री पंत क्यों कहा? खैर बात आई-गई हो गई। कुछ समय बाद मस्जिद में दाभोलकर और बाबा साहेब की मौजूदगी में जब किसी ने पूछा कि, बाबा कहां जाएं, तो बाबा ने कहा ऊपर जाओ। उसने तपाक से प्रतिप्रश्र किया, बाबा मार्ग कैसा है? बाबा ने जवाब दिया- कांटो भरा, गड्ढों भरा, टेढ़ा-मेढ़ा। ....और हां बीच में सियार और भेडिय़े भी खूब मिलेंगे। उस व्यक्ति ने फिर सवाल किया, बाबा यदि कोई मार्गदर्शक मिल जाए तो? तब बाबा ने कहा-अरे तब तो सब आसान हो जाता है।

इतना सुनते ही दाभोलकरजी के दिमाग की ट्यूबलाइट जल उठी। वो समझ गए इशारा किसकी ओर है। जो बात बाड़े में चल रही थी, यहां उसी की ओर बाबा का इशारा था। मस्जिद और बाड़े के बीच इतनी दूरी थी कि यहां कि बात वहां सुनाई नहीं दे सकती थी, फिर भी बाबा ने सुन लिया। बाबा ने दाभोलकरजी के मन में उठ रहे प्रश्नों का समाधान कर दिया था। बस फिर क्या था, दाभोलकरजी का मन गुरु की भक्ति में रम गया। और फिर ऐसे दाभोलकरजी का नया नामकरण हुआ हेमाडपंत। 

दाभोलकरजी के बाबा से भेंट करने के एक साल बाद यानी यह 1911 की बात है। शिर्डी गांव में हलचल मची हुई थी। बाबा चक्की चलाकर गेहूं पीस रहे थे। इस घटना का जिक्र इस पुस्तक में हम पहले कर चुके हैं, लेकिन यहां दुबारा बताना इसलिए आवश्यक है क्योंकि हेमाडपंत ने जब बाबा को यह करते देखा, तो उनके मन में कई प्रकार के विचार पैदा हुए। हालांकि चक्की चलाना बाबा के लिए कोई नई बात नहीं थी। दाभोलकर जी तो श्री साई सदचरित में यहां तक लिखते हैं कि, बाबा जब तक अपने ज्ञात रूप में शिर्डी में रहे, उन्होंने पूरे 60 साल तक चक्की चलाई। यह बात उन्होंने बड़े ही सांकेतिक रूप में कही है। बाबा अपने भक्तों के पाप को चक्की में पीसते थे। खैर, शिर्डी गांव में हलचल मची थी। उसी दिन दाभोलकरजी का शिर्डी पहुंचना हुआ था। दाभोलकरजी ने देखा कि मस्जिद के बाहर लाइन लगी थी। लोग कौतुहल से देख रहे थे कि, आज बाबा कर क्या रहे हैं? बाबा गेहूं चक्की में डालते, चक्की घुमाते और आटा गिरता जाता। तभी भीड़ में से चार महिलाएं बाहर आईं और बोलीं, बाबा आप हटो; हम चक्की चलाते हैं न आपके लिए। महिलाओं ने चक्की की कमान संभाली और आटा पीसा खूब सारा। चक्की चलाते-चलाते वे चारों बात करती रहीं कि, बाबा का तो कोई घर-बार, बाल-बच्चे हैं नहीं, फिर वे क्या करेंगे इतने आटे का? उनमें से एक बोली, चलो हम ही ये आटा अपने साथ ले चलते हैं। उन्होंने साड़ी का पल्लू खोला और आटा भरने को हुईं। यह देखकर बाबा भड़क उठे-अपने बाप का माल समझ रखा है? किससे पूछके आटा ले जा रही हो? जाओ समेटो चुपचाप और शिर्डी की सीमाओं पर डाल कर आ जाओ।

दाभोलकरजी हैरान। आखिर बाबा ने ऐसा क्यों किया? जब रास्ते पर ही फेंकना था आटा, तो इन औरतों को ही ले जाने देते, इनका ही भला हो जाता। तब किसी गांववाले ने उन्हें समझाया-यह बाबा की लीला है, पास के गांव में हैजा फैला है। आसपास के गांव में बहुत लोग मर गए थे। हैजे से शिर्डी के लोगों को भी डर था कि हैजा कहीं उन्हें भी अपनी चपेट में न ले ले। लेकिन जैसे ही बाबा ने गांव की सीमाओं पर वह आटा फिंकवाया, शिर्डी के लोगों के मन से हैजे का डर पूरी तरह खत्म हो गया। वहां कोई बीमार नहीं पड़ा, एक भी मृत्यु हैजे से नहीं हुई।

कुछ लोगों को इस पर विश्वास नहीं हुआ।...और होगा भी क्यों? भला सरहद पर आटा फेंकने से कोई हैजा रुकता है? लेकिन जो लोग बाबा के करीब से जानते थे; उनके चमत्कारों से रूबरू होते रहते थे; उन्हें यकीन था कि, बाबा ने जरूर कुछ किया है। क्योंकि आटा फेंकने से हैजा शिर्डी में प्रवेश नहीं कर पाया था।

मैं बाबा से जुड़ा यह किस्सा लोगों को सुना रहा था। एक सज्जन आए और हैरानी भरे शब्दों में कहने लगे-क्या इन सब बातों पर आपको भरोसा है? क्या वाकई बाबा ने कोई चमत्कार किया था या इसके पीछे कोई लॉजिक रहा था? क्या सच में बाबा आटे से बीमारी रोकते थे और पानी से दीपक जला देते थे? मैं उन सज्जन के सवालों को मुस्कराते हुए सुनता रहा कोई रिप्लाई नहीं किया। क्योंकि वो सवाल नहीं कर रहे थे, बल्कि अपनी उत्सुकता व्यक्त कर रहे थे।

खैर, बाबा के पानी से दीपक जलाने की कहानी भी बड़ी अद्भुत है। इसे भी इस पुस्तक में हम पहले बयां कर चुके हैं। बाबा के शुरुआती दिनों की बात है। यह तो अब सबको पता होगा ही कि बाबा भिक्षा पर ही अपना जीवन यापन करते थे। शाम को द्वारका माई को वे सजाते थे। उस पर खूब सारे दीये लगाते थे। बाबा की कमाई तो कुछ थी नहीं; और वे दक्षिणा भी किसी से लेते नहीं थे। हां, शिर्डी के दुकानदारों से जरूर वे ऐसे ही थोड़ा-बहुत जरूरत की चीजें ले आते थे। जैसे दीये जलाने के लिए तेल दुकानदार ही देते थे। 

उस समय शिर्डी एक छोटा-सा गांव था। वहां बमुश्किल दो या तीन दुकानदार ही थे। एक बार उन्होंने किसी बात को लेकर आपस में साठगांठ कर ली कि; अब इस फकीर को हम कुछ नहीं देंगे, फिर देखते हैं यह दीये कैसे जलाता है। जब बाबा दुकानदारों के पास गए, तो उन्होंने कह दिया कि मुफ्त में तो हम कुछ नहीं देंगे। बाबा के पास पैसे तो थे नहीं, वे बगैर कोई प्रतिक्रिया दिए वापस हो लिए। उनसे कुछ नहीं छिपा था। 

शाम को अंधेरा घिरते ही बाबा ने टमरेल(तेल रखने का पीपा) में जो थोड़ा-सा तेल था, उसमें एक पूरा मटका पानी का उड़ेल दिया। इसके बाद टमरेल को मुंह से लगाकर पूरा का पूरा पानी पी गए। उसके बाद फिर मुंह में भरे पानी को वापस टमरेल में उड़ेल दिया। उस पानी को मिट्टी के दीये में उड़ेला। यह देखकर दुकानदार हंसने लगे ये। अजीब पागल है, पानी से दीये जलाएगा! बाबा ने दियासिलाई ली और एक-एक कर सारे दीपक जला दिए। यह शिर्डी में उनका पहला चमत्कार था, जो एक किवंदती बन गया।

बाबा का यह चमत्कार देखकर दुकानदार डर गए। यहां बाबा का चरित्र समझ में आता है कि; वे किस तरह हमें सुधारते हैं। दुकानदारों को लगा था कि जो पानी से दीये जला सकता है, वो हमें श्राप भी दे सकता है। लेकिन साई सजा देने वालों में से नहीं हैं। साई इज रिफॉर्मिस्ट; याने साई आपको बदल डालते हैं। वो आपके अंतर्मन में इतनी गहराई से समा जाते हैं; घुल-मिल जाते हैं कि, आप अपने आप बदल जाते हैं। आपका स्वभाव बदल जाता है, चाल बदल जाती है और चरित्र बदल जाता है। आपके मन के विकार दूर हो जाते हैं। अगर बाबा के पानी से दीये जलाने के चमत्कार को जीवन-दर्शन के तौर पर समझें, तो बाबा तेल-पानी दीये में नहीं; हमारे अंदर उड़ेल रहे होते हैं, ताकि मन का दीपक जल उठे और तमस दूर हो।

बाबा ने दुकानदारों से कहा तुमने मुझे तेल नहीं दिया, लेकिन ऊपर वाले को तो दीये जलाने थे; सो उसने जला दिए। फिर बाबा ने कहा, सबसे पहला जुर्म तुमने क्या किया पता है? मानवता के नाते तुमने झूठ बोलने का जुर्म किया; तेल होते हुए भी मुझे मना कर दिया, क्योंकि तुम्हे बिना मोल के नहीं देना था। दूसरा गुनाह तुम्हारा यह है कि मस्जिद रात को अंधेरे में डूबी रहती और यदि कोई यहां आता तो गिरता और उसे चोट लग जाती। वो तुम्हे बद्दुआयें देता। तीसरा तुमने झूठ बोलकर उस ऊपर वाले की शान में गुस्ताखी की है। यह सुनकर दुकानदारों को अपनी गलती का एहसास हुआ। वे शर्मिंदा होकर बाबा के चरणों में गिर पड़े। बाबा ने उन्हें पूरी तरह बदल दिया था। 

मैं जैसा पहले बता रहा था कि; एक सज्जन ने मुझे साई के चमत्कारों को मानने पर सवाल किया था। मैंने कहा-हां, मैं मानता हूं कि, साई चमत्कारिक हैं। मेरा जवाब सुनकर उनका रियेक्शन था, तुम कैसे मानते हो? बाबा चमत्कार करते हैं, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो? मैंने कहा-मैं इसलिए मानता हूं, क्योंकि साई इज नॉट लॉजिकल; ही इज बिआंड लॉजिक। साई तर्कों से परे हैं। साई विवाद का विषय नहीं; सांई प्रेम का विषय हैं, सांई श्रद्धा का विषय हैं। साई सब्र का; बदलाव का और जीत का विषय हैं। साई तो परमानंद का विषय हैं। वे मौज का विषय हैं जिसे एक बार साई के सान्निध्य में आनंद आने लगता है, वो कहीं और ठौर नहीं पाता। इसलिए साई पर विवाद नहीं होना चाहिए। 

बहरहाल, हम वापस लौटते हैं। हेमाडपंत बाबा के पास पहुंचे। उनके मन में इच्छा उत्पन्न हुई कि; अब इस महान व्यक्तित्व की जीवनी लिखी जाए, ताकि लोग उसे पढ़कर खुद में बदलाव ला सकें। समाज और देश को एक अच्छी दिशा में ले जा सकें। लेकिन हेमाडपंत सोच में थे, बाबा के पास जाकर ऐसी मांग करना तर्क संगत तो नहीं था! उन्होंने श्यामा को पकड़ा। जैसे महादेव मंदिर के बाहर नंदी होता है न! हम नंदी से आज्ञा लेकर मंदिर में प्रवेश करते हैं। वैसे ही बाबा के पास पहुंचना हो; तो श्यामा को पकडऩा पड़ता था। 
यह श्यामा और कोई नहीं; माधवराव देशपांडे थे, जिन्हें बाबा ने यह नाम दिया था। हेमाडपंत ने अपने मन की बात श्यामा से कही। श्यामा को बात जंची; क्योंकि यह प्रयोजन सबकी भलाई से जुड़ा था। बाबा की जीवनी पढऩे वालों का मार्गदर्शन करती। उनको सही और गलत का आभास कराती। पाप-पुण्य में भेद समझाती।

मौका पाकर श्यामा दाभोलकरजी यानी हेमाडपंत को लेकर बाबा के पास पहुंचे। उन्होंने सीधे शब्दों में बाबा से कहा, दाभोलकरजी आपकी जीवनी लिखना चाहते हैं। बाबा मुस्कराए-छोड़ो; मैं फकीर हूं; मेरी जीवनी कौन पड़ेगा? श्यामा ने जवाब दिया-बाबा आपको अनुमति देनी ही पड़ेगी। 

खैर बड़ी मुश्किल से बाबा राजी हुए। दाभोलकर जी को यह छूट मिल गई कि; वे बाबा के जीवन से जुड़ी घटनाओं को क्रमबद्ध कर सकते हैं, लिख सकते हैं, उसके नोट्स बना सकते हैं। लेकिन बाबा ने अनुमति के साथ एक शर्त भी रख दी। बाबा ने कहा-इनसे यानी दाभोलकरजी से बोलो यह अंहकार का भाव छोड़कर मेरी शरण में आएं। यदि यह अहंकार का भाव लेकर मेरी शरण में आएंगे, तो मैं इनकी बिल्कुल मदद नहीं कर पाऊंगा। अगर यह अपना अहंकार छोड़कर मेरी शरण में आते हैं, तो मैं स्वयं अपनी जीवनी लिखूंगा और जा-जो भी मेरी जीवनी पड़ेगा और मेरी लीलाओं का श्रवण करेगा; मनन करेगा उनके जन्म जन्मांतर में किए गए पाप धीरे-धीरे, शनै-शनै नष्ट हो जाएंगे। उन्हें प्रभु की शरणागति प्राप्त हो जाएगी।  

खैर दाभोलकरजी को इस तरह से बाबा की जीवनी लिखने की अनुमति मिल गई। बाबा ने समाधि ली 15 अक्टूबर 1918 के रोज। मंगलवार दशहरे का दिन था। हिमाटपंत जी ने उनके नोट्स को जमाना शुरू किया 1922-23 से और सांई सद्चरित का प्रकाशन शुरू हुआ 1929 में। अब यहां भी बाबा का चमत्कार देखिए, जो आदमी पांचवीं तक पढ़ा हुआ; दूर दूर तक कवि हृदय नहीं यानी दाभोलकरजी तो ठहरे से बड़े अहंकार वाले; कविता से उनका कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन बाबा की जीवनी साई सद्चरित को उन्होंने मराठी की औवी यानी हिंदी में पद्य के रूप में लिखा। ताज्जुब की बात; वो भी कोई 500 या हजार नहीं; पूरी नौ हजार तीन सौ आठ औवियां लिख डालीं उन्होंने। आदमी सोचता कुछ है, करता कुछ है, होता कुछ है, दिखता कुछ है और समझ में कुछ और आता है; यही साई हैं। साई एक व्यक्ति से क्या-क्या करा लेते हैं, यह तो वो ही जानें। एक बार आप साई के हो जाओ, वो इतना नवाजते हैं, इतना नवाजते हैं कि आप जो नहीं सोचते; वह भी पा लेते हैं। वो जो तेरी किस्मत में होगा तुझे जरूर मिलेगा और यदि बाबा की कृपा हो गई, तो वो भी मिल जाएगा; जो तेरी किस्मत में नहीं है। 

तब की एक कहानी...
ईश्वर के घर यानी मंदिर में लोग अपनी भक्ति से जाते हैं, श्रद्धा से जाते हैं। जब तक भगवन का बुलावा नहीं आता, कोई वहां नहीं जा पाता। अगर आप बेमन से जाते हैं, तो ऐसे जाने का कोई मतलब नहीं। आज भी शिर्डी वो ही लोग पहुंच पाते हैं, जिन्हें बाबा बुलावा देते हैं। बाबा के एक भक्त थे नारायण राव। उन्हें बाबा के दर्शनों का तीन बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह बात 1918 में बाबा के समाधि लेने के तीन वर्ष बाद की है। नारायण राव शिर्डी जाना चाहते थे। लेकिन बाबा के समाधि लेने के एक वर्ष बाद वे खुद बीमार पड़ गए। नारायण राव का मन दु:खी हो गया, क्योंकि वे शिर्डी जाना चाहते थे। उन्होंने बाबा का स्मरण शुरू किया। एक दिन उन्हें सपना आया। बाबा गुफा से बाहर निकलते हैं और सांत्वना देते हैं कि, अगले दिन वे ठीक हो जाएंगे। ऐसा हुआ भी। नारायण राव पहले से ही बाबा के चमत्कारों से वाकिफ थे, इसलिए उन्हें कोई बड़ा अचरज नहीं हुआ। वे बाबा की शरण में जाना चाहते थे, इसलिए उनकी इच्छा पूरी हुई। 

कहते हैं कि ईश्वर जब एक अवतार से निवृत होता है, तो दूसरे अवतार में चला जाता है। एक प्रयोजन खत्म; तो दूसरे की तैयारी। बाबा ने भी एक खास प्रयोजन के लिए शरीर धारण किया था। लाखों लोगों के मन का मैल धोया और शिर्डी में विराजे-विराजे वे आज भी ऐसा ही कर रहे हैं। वे इन दिनों कहीं किसी दूसरे अवतार में मौजूद होंगे। लोगों की भलाई कर रहे होंगे। हम जब भी उन्हें याद करते हैं, वे हमारे पास मौजूद होते हैं। यह आवश्यक नहीं कि; वे अपने पहले वाले शरीर में ही आएं, वे किसी भी रूप में आ सकते हैं। बाबा कहते हैं सबका मालिक एक। ठीक वैसे ही हम अपने सुविधा और श्रद्धाभक्ति के हिसाब से ईश्वर को किसी भी रूप में ढाल दें, लेकिन वो तो एक हैं।

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