Thursday 12 March 2015

बाबा पुनर्जन्म को मानते थे, क्यों; वो इसलिए..

माटी जैसा है बदन, बस लेता नये आकार।
माटी को नये रूप में ढाले ज्यों कुम्हार।

आत्मा कभी नहीं मरती; बस शरीर बदलती है। दरअसल, इस बात को कई लोग इसलिए नकारते हैं क्योंकि उन्होंने ऐसा होते नहीं देखा। उन्हें याद नहीं होता कि; उनकी आत्मा पिछली जन्म में किसके शरीर में मौजूद थी। लेकिन महोदय; जरा सोचिए, देख तो हम हवा को भी नहीं पाते, तो क्या यह मान लेते हैं कि; हवा जैसी कोई वस्तु है ही नहीं! हवा महसूस की जाती है, वैसे ही आत्मा का नया अवतार भी आभास करने की चीज है, ऊर्जा है।


हम अपने जन्म में जो सुख-दु:ख भोगते हैं; वे हमारे पिछले कर्मों-धर्मों का ही प्रतिफल होते हैं। इसलिए यह मान लीजिए कि; इस जन्म में हम जो भी काम करेंगे; जैसा भी कर्म करेंगे/धर्म करेंगे; उसका प्रतिफल हमें अगले जन्म में भोगना ही होगा। यानी वही असली स्वर्ग और नरक। बाबा इस बात को जानते थे; जानकार थे।

 अमेरिका में एक बड़े साइको पैथो एनालिस्ट रहे हैं, उनका नाम है डॉ. ब्राइन वाइस। उन्होंने पुनर्जन्म पर बहुत सारी किताबें लिखी हैं। ये हिप्नोसिस के भी मास्टर रहे हैं और लोगों को पुनर्जन्म में ले जाते हैं। जब डॉ. ब्राइन लोगों को पुनर्जन्म में ले जाते हैं, तो उनका संपर्क कुछ ऐसी अच्छी आत्माओं से हो जाता है, जिन्हें वो मास्टर कहते हैं। और जब इनका उनसे संवाद हो जाता है, तो यह बन जाता है वाइस ऑफ मास्टर।

डॉ. ब्राइन वाइस ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि, एक बार उनका संपर्क एक मास्टर से हो गया। उसने डॉ. ब्राइन को एक संदेश दिया। यह संदेश था-लेट अस नॉट फॉलो साई बाबा, लेट अस बी साई बाबा। यानी कि बाबा का अनुसरण न करो; खुद साई बन जाओ।
यह सच है, क्योंकि बाबा भी तो यही चाहते हैं।

बाबा हमेशा कहते रहे कि, अपनी सब बुराइयां मुझे दे दो। अपने दु:ख मुझे दे दो। मैं तुम बन जाता हूं और तुम मैं बन जाओ। आज भी हम इसी उद्देश्य के साथ शिर्डी जाते हैं। हमारी इच्छा होती है कि; हम शिर्डी पहुंंचें, तो बाबा की शरण में जाते ही हमारे सारे पाप-दुष्कर्म दूर हो जाएं। सारी बुराइयां मन से काफूर हो जाएं। जब हम शिर्डी से लौटें, तो मैं बनकर नहीं; साई बन जाएं। मैं यानी अहंकार और साई मतलब हम। जब मैं धीरे-धीरे हम में तब्दील हो जाता है, तो व्यक्ति मैं के बारे में नहीं हम की भलाई की सोचने लगता है। जब कोई व्यक्ति अपने-तेरे के फेर से परे हो जाता है, तो उसकी जिंदगी बदल जाती है। बाबा यही चमत्कार करते हैं, मैं को हम बनाने का।


एक थीं सीतादेवी तरखट। उनका सम्पूर्ण परिवार बाबा का भक्त था। एक बार जब वे शिर्डी प्रवास पर थीं, उनके बेटे को प्लेग की गांठे निकल आई पेट में। वे घबराते हुए बाबा की शरण में दौड़ीं। पहुंचते ही दु:खी मन से बोलीं, देखिए यह क्या हो गया देवा? मेरे बेटे को प्लेग की गांठे निकल आई हैं। बाबा ने आसमान की ओर देखते हुए कहा-आसमान बेहद काला हो गया है, लेकिन बादल भी बस छटने ही वाले हैं। इतना कहकर उन्होंने अपनी कफनी ऊपर की। लोगों ने देखा कि, बाबा के शरीर पर प्लेग की चार गांठे थीं। सीता देवी उनके चरणों में गिर गईं। वापिस घर लौटीं, तो देखा कि, बेटा ठीक हो गया है। प्लेग की गांठ गायब हो गई थी।


श्रीमान खापरडे अपने जीवन की उल्लेखनीय घटनाएं एक डायरी में लिखते थे। इसमें खापरडे ने बाबा के कई चमत्कारों का भी वर्णन किया है। उन्होंने लिखा कि बाबा की उनसे बड़ी अंतरंगता हो गई थी। बाबा ने एक बार  उनसे कहा था, मैं अपने भक्तों के दु:ख अपने शरीर में लेता हूं। लेकिन इस शरीर की भी अपनी सीमाएं हैं। मेरा शरीर थक गया है अपने भक्तों के दु:ख लेते-लेते। लेकिन जब तक मेरे प्राण हैं, मेरे भक्तों को कुछ नहीं होगा और मेरे मरने के बाद अस्थियां भी मेरी समाधि से भक्ति का-शक्ति का भाव का संचार करेंगी। वो अपने भक्तों के साथ बात करेंगी। चलेगी-फिरेंगी। कोई भी भक्त मेरी समाधि से कभी खाली हाथ नहीं जाएगा। बाबा ने इसे निभाया, आज भी निभा रहे हैं और आगे भी निर्वहन करते रहेंगे।


तब की एक कहानी...
यह दिसंबर, 1886 की बात है। बाबा को श्वांस की तकलीफ हो गई। तब बाबा की ख्याति इतनी नहीं फैली नहीं थी। बाबा ने मालसापति को अपने पास बुलाकर उनकी गोदी में अपना सिर रखा और बोले; मालसा मुझे बेहद तकलीफ हो रही है। मैं तीन दिन अपने पिता के पास हो आता हूं। यदि मैं तीन दिन में नहीं लौटा, तो यहीं पर मुझे गाड़ देना और उस पर दो झंडी लगा देना। जिससे तुझे याद रहे कि मेरा साई यहीं रहता था।


यह कहकर बाबा ने आंखे मूंद लीं और निष्प्राण हो गए। मालसापति रो भी नहीं सकते थे। उन पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी जो थी कि, अपने गुरु अपने मित्र, परमात्मा याने कि सर्वस्व को संरक्षित करके रखना है। शिर्डीवासियों को तो लगा कि बाबा तो गए, लेकिन मालसा को विश्वास था कि बाबा वापस आएंगे।


एक दिन तक गांववालों ने बाबा का इंतजार किया, कुछ नहीं हुआ प्राण नहीं लौटे। दूसरे दिन कुछ गांववाले जाकर सरकारी अधिकारियों को बुला लाए। वे जोर-जबर्दस्ती करने लगे मालसा के साथ कि; हम यद्द शरीर को यहां नहीं रखने देंगे, इससे बीमारियां फैलेंगी। मालसा ने कहा, नहीं मैं बाबा के कहे अनुसार तीन दिन इंतजार करूंगा। उसके बाद उनके कहे अनुसार ही उन्हें दफन कर दूंगा। लेकिन तब तक हाथ नहीं लगाने दूंगा।

मालसापति दुनियादारी से एकदम दूर रहते थे। हालांकि पहले तो उनका ज्वैलरी का काम था यानी वे सुनार थे पेशे से। लेकिन दुनियादारी में उनकी रुचि नहीं थी। दुकान चली तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं। वे पहले खंडोबा और उसके बाद बाबा की शरण में आ गए थे। बाबा उन्हें समय-समय जरूरतों के लिए पैसा देते रहते थे, लेकिन मालसा हर बार इनकार करते, लेकिन बाबा की जिद के आगे झुक जाते। मालसा हमेशा कहते, बाबा हमें तुम चाहिए, धन का हम क्या करेंगे? इस तरह की भक्ति थी मालसा की। वे बाबा की ही तरह भिक्षा मांगकर गुजारा करते थे।

बहरहाल, मालसा बाबा के शरीर की रक्षा में लग गए, तो उनके घर दो दिन चूल्हा तक नहीं जला। ऐसी स्थिति में घर में हड़कंप मच गया। पत्नी भूख से बिलखते बच्चों को देखकर रोने लगी। लेकिन मालसा की तपस्या देखिए कि वे बाबा का शरीर गोदी में लिए वहीं बैठे रहे दो दिन तक।

तीसरा दिन हुआ शरीर में कोई हलचल नहीं। गांववाले और अधिकारी मालसा के सिर पर जैसे तलवार लिए खड़े थे। दबाव बढ़ता ही जा रहा था। 72 घंटे पूरे होने को थे, लेकिन बाबा निष्प्राण। रात घिरने पर गांव वालों ने तय कर लिया कि कल सुबह होते ही बाबा को दफन कर दिया जाएगा। अचानक सभी देखते हैं कि बाबा के दांये हाथ की उंगली में हरकत हुई और वे उठ खड़े हो गए।

जरा सोचिए यदि उस वक्त मालसापति बाबा के शरीर को दफनाने की इजाजत देते, तो क्या आज हम बाबा के आशीर्वाद से इतनी खुशहाल जिंदगी गुजर-बसर कर रहे होते? हमारा दु:ख कौन हर रहा होता? हमें सच्चे मार्ग पर कौन ला रहा होता?


ऐसे थे साई और उनकी यौगिक क्रियाएं। बाबा को योग में संपूर्णता हासिल थी, यानी बाबा परमयोगी थे। एक यौगिक क्रिया है ध्वति। यह योग आंतों को स्वच्छ करने के लिए किया जाता है। शिर्डी के रहवासियों ने कई बार देखा कि, बाबा मुंह से कपड़ा डाल अपनी आंतों को स्वच्छ करने के लिए उन्हें शरीर से बाहर निकालते। उसके बाद उन्हें सूखने के लटका देते। जब आंतें सूख जातीं, तो वापस अंदर डाल देते।


हेमाडपंत ने अपनी पुस्तक साई सद्चरित में भी इसका उल्लेख कियाा है। बाबा एक और क्रिया करते थे, जिसे खंड योग कहते हैं। बाबा अपने शरीर के सारे अवयव अलग-अलग कर लेते थे। हाथ कहीं, पांव कहीं। एक बार रात में जब बाबा यह क्रिया कर रहे थे, तो एक भक्त वहां पहुंच गया। वह डर गया कि बाबा तो क्षत-विक्षप्त पड़े हैं। उसने सोचा पुलिस में जाऊं, लेकिन यह सोचकर और भयभीत हो गया कि, जाकर बताऊंगा क्या? कहीं पुलिस हमें ही न धर ले। वह चुपचाप घर जाकर सो गया। दूसरे दिन डरते-डरते मस्जिद गया कि देखू वहां क्या हो रहा है। वह घबराया हुआ-सा मस्जिद पहुंचा। वहां जाकर उसने देखा कि, बाबा आग में लकडिय़ां डाल रहे हैं। भक्त मारे डरके उल्टे पांव भागने को हुआ, लेकिन बाबा ने मुस्कराते हुए उसे पुकारा, अरे आजा, तू भी धूनी में लकडिय़ा डाल दे थोड़ी सी।


हम इस पुस्तक में पहले भी पढ़ चुके हैं कि, वर्ष 1910 दीवाली के जब बाबा धूनी में लकडिय़ां डाल रहे थ, अचानक ही उन्होंने आग में अपना हाथ डालकर ऐसे बाहर खींचा था, मानों अंदर से किसी को बाहर निकाला हो। उस घटना के वक्त तात्या वहीं बैठे थे। वे तो भयभीत हो उठे थे। तात्या ने कहा,बाबा यह क्या करते हो, धूनी में हाथ क्यों डाल दिया? तब बाबा ने बताया था कि, उन्होंने एक लुहारिन के बच्चे को आग में गिरने से बचाया है।


इस घटना में बाबा का हाथ जल गया था। बाबा के भक्त भागोजी शिंदे ही उनकी मलहम-पट्टी करता था। भागोजी को कोढ़ था। उसका कोढ़ इतना बढ़ गया था कि हाथों की उंगलियां भी गल चुकी थीं। वह बाबा की शरण में रहता और बाबा का चरण तीर्थ रोज पीता।
Bhagoji Shinde

शिर्डी के लोग कहते हैं कि वह तीर्थ पीने के बाद उसका कोड़ नियंत्रण में आ गया था। बाबा उसकी सेवा लेते थे। लोग कुष्ठ रोगी को अस्पृश्य समझते हैं, लेकिन बाबा उसकी सेवा लेते थे। यहां तक, जब बाबा ने समाधि ली और देह छोड़ी, तब भी मस्जिद में जो छह लोग उपस्थित थे उनमें भागोजी शिंदे भी शामिल था।


यह बात हम आज समझे हैं कि कुष्ठ रोग छूने से नहीं फैलता, लेकिन बाबा बहुत पहले यह सीख हमको दे चुके थे। सिर्फ सबक ही क्यों; बाबा ने भागोजी को अपने करीब आने; सेवा करने का मौका इसलिए नहीं दिया, क्योंकि उन्हें इसकी आवश्यकता थी, वे तो यह संदेश देना चाहते थे कि; बीमारियों से भागो मत; बीमारों को दुत्कारो मत, शारीरिक बीमारियां तो दूर हो सकती हैं, लेकिन सबसे पहली जरूरत मन की बीमारियां दूर करने की है।

धूनी में डालने के कारण जब बाबा का हाथ जल गया, तो भागोजी ने उनसे कहा, आपको पट्टी मैं ही बाधूंगा। बाबा ने कहा ठीक है, वहां से पत्ता तोड़ ला और पट्टी बांध दे। 1910 की दीवाली और 1918 का दशहरा जब बाबा ने समाधि ली रोज यह क्रम चलता। बाबा का हाथ तो कब का ठीक हो गया था, लेकिन भागोजी रोज जख्म वाली जगह पट्टी बांधते। यह सिलसिला नहीं रुका। काका साहेब दीक्षित को पता चला कि बाबा का हाथ जल गया है, तो वे बंबई से डॉक्टर ले आए, लेकिन बाबा ने डॉक्टर को हाथ नहीं रखने दिया। साफ मना कर दिया। उस डॉक्टर का मेडिकल बॉक्स शिर्डी में खुल न सका। बाबा के दर्शन अलबत्ता उसे जरूर मिल गए। 

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